ऐसी नारी की स्वयं धन अर्जन कर पाने की सीमित शारीरिक क्षमता को केंद्र में रखकर संभवतः कानून के निर्माताओं द्वारा परित्यक्ता नारी को भरण पोषण राशि ( गुज़ारा भत्ता ) दिए जाने की परिकल्पना और तत्संबंधी प्रावधान किया गया होगा, जो कुछ दशक पहले की नारी की शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक व शैक्षिक स्थिति के दृष्टिगत उचित प्रतीत होता है, यद्यपि नारी-शक्ति के उत्तरोत्तर विकास को देखते हुए 'भरण पोषण भत्ते' की अवधारणा में अब काफी परिवर्तन भी आया है.
इसी परिवर्तन ने पति - पत्नी के रिश्तों की एक नयी परिभाषा भी गढ़ी है, जिसमे विवाह संस्कार जैसी क्रिया को सम्पादित किये बिना पुरुष - स्त्री कुछ समय के लिए या लम्बे समय के लिए वैवाहिक बंधन में आबद्ध हो जाते हैं, जिसे ' लिव इन रिलेशनशिप ' का एक आकर्षक नाम दिया गया है, किन्तु एक विवाह संस्कार या सप्तपदी या अन्य मान्य संस्कार के अतिरिक्त इस रिश्ते में वह सब कुछ छिपा होता है, जो विवाह संस्कार सम्पादित होने के बाद एक दम्पति के मध्य होता है - अर्थात पारस्परिक सहवास.
जब ' सहवास ' को विवाह कर्म का उद्देश्य या परिणिति मान्य करते हुए ही पत्नी के " भरण पोषण " के अधिकार का सृजन होना कानून में मान्य किया गया है, तब मात्र सप्तपदी या तत्समान संस्कार के अभाव-मात्र से पुरुष - स्त्री के ऐसे किसी रिश्ते को ' लिव इन रिलेशनशिप ' की नयी परिभाषा या परिकल्पना में दर्ज कर नारी के भरण पोषण प्राप्ति के अधिकारों को सीमित कर देना, किसी प्रकरण की परिस्थितियों में संभवतः विधि सम्मत हो सकता है, किन्तु न्यायालय के द्वारा ऐसे किसी सिद्धांत का सार्वभोम प्रतिपादन कर देना, विधायिनी को प्राप्त शक्तियों का स्वयं प्रयोग कर डालने के समकक्ष प्रतीत होता है, जिसके पूर्व "घरेलू हिंसा अधिनियम " जैसे नए कानूनों के लचीले और नरम प्रावधानों का निर्वचन कर, फिर नए सिद्धांतों का प्रतिपादन करना अधिक सामयिक और सुसंगत होता.
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