तुम्हारी क़ब्र पर मैं
फातेहा पढ़ने नहीं आया
मुझे मालूम था तुम मर नहीं सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी वो झूठा था
वो तुम कब थे ?
कोई सूखा हुआ पत्ता हवा में गिर के टूटा था
मेरी आँखें
तुम्हारे मंज़रों में क़ैद हैं अब तक
मैं जो भी देखता हूँ, सोचता हूँ
वो वही है
जो तुम्हारी नेकनामी और बदनामी की दुनिया थी
कहीं कुछ भी नहीं बदला
तुम्हारे हाथ, मेरी उँगलियों में सांस लेते हैं
मैं लिखने के लिए जब भी, कलम कागज़ उठाता हूँ
तुम्हें बैठा हुवा मैं
अपनी ही कुर्सी में पाता हूँ,
बदन में मेरे, जितना भी लहू है,
वो तुम्हारी
लगजिशों, नाकामियों के साथ बहता है,
मेरी आवाज़ में छुप कर, तुम्हारा ज़ेहन रहता है,
मेरी बीमारियों में तुम,
मेरी लाचारियों में तुम
तुम्हारी क़ब्र पर जिस ने तुम्हारा नाम लिख्खा है
वो झूठा है
तुम्हारी क़ब्र में, मैं दफ्न हूँ,
तुम ज़िंदा हो !
तुम ज़िंदा हो !
मिले फ़ुर्सत कभी, तो फ़ातेहा पढ़ने चले आना.
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