कोई अजनबी सा एक शख्स
* पीयूष माथुर   

कोई अजनबी सा एक शख्स
मेरे जेहन के किसी कोने में छुपा बैठा है
जो मुझे जीवन के जोड़ तोड़ सिखलाता रहता है
और ऐसे ताने बाने  बुनवाता रहता है
जो बुनियादी धागों के सिरों को खोजने की तलाश में
हमेशा मुझे धागों के जाल में धीरे से उलझा देते है
खासकर उन सवालों और जवाबों के भंवर में
जिनमे गोते खा कर और डूबकर बाहर आने को
गोया मन नहीं करता है
शायद ज़िन्दगी के वो  दयार ऐसे ही होते हैं
जो इन्ही नाज़ुक पलों के मुन्तजिर हुआ करते हैं
जो याद दिलाते है हमारे अतीत की मीठी यादों की
और उन गुस्ताख हवाओं की
जिनको छूकर हमारे बचपन का हर लम्हा गुज़रा होता है
और तभी शायद हमारे अन्दर छुपा
वो मासूम सा नन्हा बच्चा
लड़कपन के हसीन किनारों से अठखेलियाँ करता हुआ
बचपन की मद्धिम रौशनी में
दूर से आते हुए ज़िन्दगी के जहाज़ को
अपलक निहारते हुए
अपनी आँखों की पलकों में
हमेशा के लिए कैद कर लेना चाहता है
ताकि जहाज़ पर मर्तबा हो जाने के बाद
मन में ये शिकायत रहे
की हम ज़िन्दगी के मीठे गीत गा सके
और उन लम्हों को गुनगुना सके
जिन पर कभी हम फक्र किया करते थे
और जो हमें दिलों जान से प्यारे हुआ करते थे.


    

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